Monday, March 31, 2008

Shayari - 16

सोचाथाहू के रोकू तुम्हे मगर कैसे रोकू
तुम्थो वो लम्हे हो जो दिल खहे समाजानेको
दिल्मे है केई अरमा हम किसीको सुनाभी नही सखतें
शायद यही फासला मनजूर हो ऊपरवालेको!

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